पेश ए खिदमत है "अमन के पैग़ाम पे सितारों की तरह चमकें की आठवीं पेशकश ब्लॉगजगत की शान एक सुलझा हुआ इंसान .. शाहनवाज़ सिद्दीकी क्...
पेश ए खिदमत है "अमन के पैग़ाम पे सितारों की तरह चमकें की आठवीं पेशकश ब्लॉगजगत की शान एक सुलझा हुआ इंसान ..शाहनवाज़ सिद्दीकी
क्या मंदिर-मस्जिद किसी इंसान की जान से बढ़कर हो सकते है?
शाहनवाज़ सिद्दीकी | मेरी नज़र में बुराई इन लोगो में नहीं बल्कि कहीं न कहीं हमारे अन्दर है, हम ऐसे लेखों को जहाँ दूसरों को गालियाँ दी जा रही हो, मज़े ले-लेकर पढ़ते हैं. क्या कभी हमने विरोध की कोशिश की? आज समय दूसरों को बुरा कहने की जगह अपने अन्दर झाँक कर देखने का है, मेरे विचार से शुरुआत मेरे अन्दर से होनी चाहिए. -
आजकल महसूस हो रहा है कि यह बीमारी ब्लॉग जगत को भी घेर रही है. चंद लेखक अपने-अपने धर्म की दुकानों को चलाए हुए हैं. हालाँकि इन दुकानों से किसी को भी परेशानी नहीं होनी चाहिए, परेशानी शुरू होती है इनके द्वारा अपने धर्म अथवा समाज की अच्छी बातों को दुनिया के सामने प्रस्तुत करने की जगह दूसरों की आस्थाओं के अन्दर बुराइयाँ निकालने की प्रवत्ति से. अगर कोई ऐसी दुकान चलता भी है तो होना तो यह चाहिए कि पूरी मानवता के हित के लिए कार्य किये जाएं, लेकिन अगर यह नहीं हो पाता है तो कम से कम अपने समाज के हित के कार्य किये जाएं. अगर अपने समाज में कोई बुराई उत्पन्न हो गई है तो उसे दूर करने की कोशिश की जाए. अगर कोई उसकी अच्छाइयों को बुराई कहकर दुष्प्रचार कर रहा है तो समाज के बीच सही बात को बताया जाए, जिससे की सभी धर्मों की बीच सौहार्द उत्पन्न हो और एक दुसरे को अच्छे तरीके से जाना जा सके. लेकिन कुछ लोगो को तो दूसरों के धर्म में सारी बुराइयाँ नज़र आती हैं तथा कुछ लोगो को केवल दुसरे धर्म को मानने वाले लोगो में ही दुनिया की सारी कमियां नज़र आती हैं. हालाँकि समाज में नज़र दौडाओ तो पता चलता है कि बुराइयाँ हर समाज में हैं, लेकिन मुसलमान हमेशा हिन्दुओं को तथा हिन्दू हमेशा मुसलमानों को संदेह की निगाह से देखते हैं! कभी किसी ने सोचा है ऐसा क्यों? क्योंकि रह-रह कर कुछ लोग एक-दुसरे धर्म के अनुयायिओं के बारे में दुष्प्रचार करते रहते हैं, बल्कि यह कहें कि अपनी दुकानदारी चलाते रहते हैं.हमेशा ही लोगो को मंदिर-मस्जिद, ज़ात-पात, हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर लडवाया जाता है. 90 के दशक अथवा उससे पहले लोग बहुत जल्दी बहकावे में आते थे, धीरे-धीरे जनता राजनैतिक दलों की चालों को समझने लगी, और फिर ऐसे राजनेताओं और राजनैतिक दलों को बाहर का रास्ता भी दिखाया गया. क्योंकि लोग जान गए थे कि मंदिर-मस्जिद की आड़ में हमारे साथ खेल खेला जा रहा है, ऊपर से आपस में लड़ने वाले अन्दर से मिले हुए हैं ताकि हमें बेवक़ूफ़ बनाया जा सके. लोग जान गए थे कि प्रेम से बढ़कर आनंद किसी बात में नहीं है, और हर धर्म प्रेम की ही शिक्षा देता है.
मेरी नज़र में बुराई इन लोगो में नहीं बल्कि कहीं न कहीं हमारे अन्दर है, हम ऐसे लेखों को जहाँ दूसरों को गलियां दी जा रही हो, मज़े ले-लेकर पढ़ते हैं. क्या कभी हमने विरोध की कोशिश की? आज समय दूसरों को बुरा कहने की जगह अपने अन्दर झाँक कर देखने का है, मेरे विचार से शुरुआत मेरे अन्दर से होनी चाहिए. - -शाहनवाज़ सिद्दीकी